किस वस्तु से अभिषेक करने से क्या लाभ मिलता हैः-
- दूध से अभिषेक करने से प्रमेह दूर होवे
- गन्ने से रस से धन की प्राप्ति होवे
- ग्रह बाधा हेतु सरसों का तेल
- धन लाभ हेतु, कर्ज से मुक्ति हेतु फलों के रस से
- शहद से करने पर तंत्र बाधा नष्ट होवे, धन प्राप्ति होवे
- इतर से मिले जल से करने पर शरीर की बीमारी नष्ट होवे
- संतान प्राप्ति हेतु शहद मिश्रित गंगाजल
- वाहन व पशु प्राप्ति हेतु दही से
- रोग-दोष से मुक्ति हेतु कुशा के जल से
- शक्कर मिले जल से पुत्र की प्राप्ति होवे
- सरसों के तेल से करने पर शत्रु नष्ट होवे, विवाद, सम्पत्ति, मुकदमे आदि मे विजय प्राप्त होवे
- नवग्रह शांति के लिए कच्चे दूध, गंगाजल, काले तिल, दाल आदि लेना चाहिए।
- शिवसंकल्प सूक्त
- पुरूष सूक्त
- अप्रतिरथ सूक्त
- मैत्र सूक्त
- नमकाध्याय (रूद्र सूक्त)
- महच्छिर (सोम स्तवन)
- जटा (मरूत स्तवन)
- चमकाध्याय (अग्नि स्तवन)
- शान्त्याध्याय
- स्वस्तिप्रार्थनाध्याय
रूद्रपाठ के पांच भेदः-
(1) रुपक या षडगंपाठ -
शिव कल्प शुक्त --------1. प्रथम हृदय रूपी अंग है
पुरुष शुक्त ---------------2. द्वितीय सर रूपी अंग है ।
अप्रतिरथ सूक्त ---------3. कवचरूप चतुर्थ अंग है ।
मैत्सुक्त -----------------4. नेत्र रूप पंचम अंग कहा गया है ।
शतरुद्रिय ---------------5. अस्तरूप षष्ठ अंग खा गया है ।
इस प्रकार - सम्पूर्ण रुद्रश्त्ध्ययि के दस अध्यायों का षडडंग रूपक पाठ कहलाता है षडडंग पाठ में विशेष बात है की इसमें आठवें अध्याय के साथ पांचवे अध्याय की आवृति नही होती है ।
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(2) रूद्री या एकादशिनी-
रुद्राध्याय की गयी ग्यारह आवृति को रुद्री या एकादिशिनी कहते है रुद्रो की संख्या ग्यारह होने के कारण ग्यारह अनुवाद में विभक्त किया गया है ।
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(3) लघुरूद्र-
(3) लघुरूद्र-
एकादिशिनी रुद्री की ग्यारह अव्रितियों के पाठ के लघुरुद्रा पाठ रखा गया है ।
यह लघु रूद्र अनुष्ठान एक दिन में ग्यारह ब्राह्मणों का वरण करके एक साथ संपन्न किया जा सकता है । तथा एक ब्राह्मण द्वारा अथवा स्वयं ग्यारह दिनों तक एक एकादिशिनी पाठ नित्य करने पर भी लघु रूद्र संपन्न होती है ।
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(4) महारूद्र-
लघु रूद्र की ग्यारह आवृति अर्थात एकादिशिनी रुद्री का 121 आवृति पाठ होने पर महारुद्र अनुष्ठान होता है । यह पाठ ग्यारह ब्राह्मणों द्वारा 11 दिन तक कराया जाता है ।
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(5) अतिरूद्र-
(5) अतिरूद्र-
महारुद्र की 11 आवृति अर्थात एकादिशिनी रुद्री का 1331 आवृति पथ होने से अतिरुद्र अनुष्ठान संपन्न होता है और ये :-
(1)अनुष्ठात्मक (2) अभिषेकात्मक (3) हवनात्मक , तीनो प्रकार से किये जा सकते है शास्त्रों में इन अनुष्ठानो की अत्यधिक फल है व तीनो का फल समान है।
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ॐ नमः शिवाय
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प्रथम अध्याय (शिवसंकल्पसूक्त)
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यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति ।
दूरंगं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।।
येन कर्मण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः ।
यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।।
यत्प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु ।
यस्मान्न ऋते किंचन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।।
येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत् परिगृहीतममृतेन सर्वम् ।
येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।।
यस्मिन्नृचः साम यजूंषि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः ।
यस्मिंश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।।
सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयतेsभीशुभिर्वाजिन इव ।
हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।।
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यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति ।
दूरंगं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।।
येन कर्मण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः ।
यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।।
यत्प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु ।
यस्मान्न ऋते किंचन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।।
येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत् परिगृहीतममृतेन सर्वम् ।
येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।।
यस्मिन्नृचः साम यजूंषि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः ।
यस्मिंश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।।
सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयतेsभीशुभिर्वाजिन इव ।
हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।।
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ॐ नमः शिवाय
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द्वितीय अध्याय (पुरुष सूक्त)
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सहस्त्रशीर्षा पुरुष:सहस्राक्ष:सहस्रपात् ।
स भूमि सर्वत: स्पृत्वाSत्यतिष्ठद्द्शाङ्गुलम् ।।
पुरुषSएवेदं सर्व यद्भूतं यच्च भाव्यम् ।
उतामृतत्यस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ।।
एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः ।
पादोSस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ।।
त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुष:पादोSस्येहाभवत्पुनः ।
ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशनेSअभि ।
ततो विराडजायत विराजोSअधि पूरुषः ।
स जातोSअत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुर: ।।
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत: सम्भृतं पृषदाज्यम् ।
पशूंस्न्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये ।।
तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतSऋचः सामानि जज्ञिरे ।
छन्दाँसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ।।
तस्मादश्वाSअजायन्त ये के चोभयादतः ।
गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाताSअजावयः ।।
तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पूरुषं जातमग्रत: ।
तेन देवाSअयजन्त साध्याSऋषयश्च ये ।।
यत्पुरुषं व्यदधु: कतिधा व्यकल्पयन् ।
मुखं किमस्यासीत् किं बाहू किमूरू पादाSउच्येते ।।
ब्राह्मणोSस्य मुखमासीद् बाहू राजन्य: कृत: ।
ऊरू तदस्य यद्वैश्य: पद्भ्या शूद्रोSअजायत ।।
चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षो: सूर्यो अजायत ।
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत ।।
नाभ्याSआसीदन्तरिक्ष शीर्ष्णो द्यौः समवर्त्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिश: श्रोत्रात्तथा लोकांर्Sअकल्पयन् ।।
यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत ।
वसन्तोSस्यासीदाज्यं ग्रीष्मSइध्म: शरद्धवि: ।।
सप्तास्यासन् परिधयस्त्रि: सप्त: समिध: कृता: ।
देवा यद्यज्ञं तन्वानाSअबध्नन् पुरुषं पशुम् ।।
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।
ते ह नाकं महिमान: सचन्त यत्र पूर्वे साध्या: सन्ति देवा: ।।
द्वितीय अध्याय (पुरुष सूक्त)
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सहस्त्रशीर्षा पुरुष:सहस्राक्ष:सहस्रपात् ।
स भूमि सर्वत: स्पृत्वाSत्यतिष्ठद्द्शाङ्गुलम् ।।
पुरुषSएवेदं सर्व यद्भूतं यच्च भाव्यम् ।
उतामृतत्यस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ।।
एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः ।
पादोSस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ।।
त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुष:पादोSस्येहाभवत्पुनः ।
ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशनेSअभि ।
ततो विराडजायत विराजोSअधि पूरुषः ।
स जातोSअत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुर: ।।
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत: सम्भृतं पृषदाज्यम् ।
पशूंस्न्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये ।।
तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतSऋचः सामानि जज्ञिरे ।
छन्दाँसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ।।
तस्मादश्वाSअजायन्त ये के चोभयादतः ।
गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाताSअजावयः ।।
तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पूरुषं जातमग्रत: ।
तेन देवाSअयजन्त साध्याSऋषयश्च ये ।।
यत्पुरुषं व्यदधु: कतिधा व्यकल्पयन् ।
मुखं किमस्यासीत् किं बाहू किमूरू पादाSउच्येते ।।
ब्राह्मणोSस्य मुखमासीद् बाहू राजन्य: कृत: ।
ऊरू तदस्य यद्वैश्य: पद्भ्या शूद्रोSअजायत ।।
चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षो: सूर्यो अजायत ।
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत ।।
नाभ्याSआसीदन्तरिक्ष शीर्ष्णो द्यौः समवर्त्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिश: श्रोत्रात्तथा लोकांर्Sअकल्पयन् ।।
यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत ।
वसन्तोSस्यासीदाज्यं ग्रीष्मSइध्म: शरद्धवि: ।।
सप्तास्यासन् परिधयस्त्रि: सप्त: समिध: कृता: ।
देवा यद्यज्ञं तन्वानाSअबध्नन् पुरुषं पशुम् ।।
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।
ते ह नाकं महिमान: सचन्त यत्र पूर्वे साध्या: सन्ति देवा: ।।
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आगे के अध्याय भी दीजिये 🙏
ReplyDeleteअष्टाध्यायी रुद्रि – तृतीय अध्याय १७ श्लोक
ReplyDelete• तृतीध्याय का अप्रतिरथसूक्त कवच है ।
तृतीयाध्याय के देवता देवराज इन्द्र हैँ तथा अप्रतिरथ सूक्त के रुप मेँ प्रसिद्ध है । कुछ विद्वान आशुः शिशानः से अमीषाज्चित्तम् पर्यन्त द्वादश मन्त्रो को स्वीकारते हैं तो कुछ विद्वान अवसृष्टा से मर्माणि ते पर्यन्त 5मन्त्रोँ का भी समावेश करते हैँ । इन मन्त्रोँ के ऋषि अप्रतिरथ हैँ । इन मन्त्रोँ द्वारा इन्द्र की उपासना द्वारा शत्रुओँ स्पर्शाधको का नाश होता है । प्रथम मन्त्र "ऊँ आशुः शिशानो .... का अर्थ देखेँ त्वरा से गति करके शत्रुओँ का नाश करने वाला , भयंकर वृषभ की तरह, सामना करने वाले प्राणियोँ को क्षुब्ध करके नाश करने वाला . मेघ की तरह गर्जना करने वाला , शत्रुओँ आवाहन करने वाला . अति सावधान , अद्वितीय वीर , एकाकी पराक्रमी . देवराज इन्द्र शतशः सेनाओँ पर विजय प्राप्त करता है ।
रुद्रस्तुति
आशुः शिशानो वृषभो न भीमो घनाघनः क्षोभणश्चर्षणीनाम् ॥
सङ्क्रन्दनोऽ निमिष एकवीरः शतसेना अजयत्साकमिन्द्रः ॥ १॥
सङ्क्रन्दनेनानिमिषेण जिष्णुना युत्कारेण दुश्च्यवनेन धृष्णुना ।
तदिन्द्रेण जयत तत्सहध्वं युधो नर इषुहस्तेन वृष्णा ॥ २॥
स इषुहस्तैः सनिषङ्गिभिर्वशी संस्रष्टा स युध इन्द्रोगणेन ॥
संसृष्टजित्सौमपा बाहुशर्द्ध्युग्रधन्वा प्रतिहिताभिरस्ता ॥ ३॥
बृहस्पते॒ परिदीया रथेन रक्षोहाऽमित्रान् अपबाधमानः ॥
प्रभञ्जन्त्सेनाः प्रमृणो युधाजयन्नस्माकमेध्यविता रथानाम् ॥ ४॥
बलविज्ञायस्स्थविर प्रवीरः सहस्वान्वाजी सहमान उग्रः ॥
अभिवीरोऽभिसत्त्वा सहोजा जैत्रमिन्द्ररथमात्तिष्ठ गोवित् ॥ ५॥
गोत्रभिदं गोविदं वज्रबाहुं जयन्तमज्म प्रमृणन्तमोजसा ॥
इमं सजाता अनुवीरयध्वमिन्द्रं सखायोऽनुसंरभध्वम् ॥ ६॥
अभिगोत्राणि सहसाऽभिगाहमानोऽदयोवीरः शतमन्युरिन्द्रः ।
दुश्च्यवनः पृतनाषाडयुध्योऽस्माकं सेनाः प्रावतु युत्सु ॥ ७॥
इन्द्र आसां नेता बृहस्पतिर्दक्षिणायज्ञ पुर एतु सोमः ॥
देवसेनानाममिभञ्जतीनां मरुतो यन्त्वग्रम् ॥ ८॥
इन्द्रस्य वृष्णो वरुणस्य॒ राज्ञ आदित्यानां मरुतां शर्ध उग्रम् ॥
महामनसां भुवनच्यवानां घोषो देवानां जयतामुदस्थात् ॥ ९॥
उद्धर्षय मघवन्नायुधान्यत्सत्त्वनां मामकानां मनांसि ।
उद्र्वृत्रहन् वाजिनां वाजिनान्युद्रथानां जयतामुद्यन्तु घोषाः ॥ १०॥
अस्माकमिन्द्रः समृतेषु ध्वजेष्वस्माकं या इषवस्ताः जयन्तु ॥
अस्माकं वीरा उत्तरे भवन्त्व॒स्माँ उ देवा अवताहवेषु ॥ ११॥
अमीषां चित्तं प्रतिलोभयन्ती गृहाणाङ्गान्यप्वपरेहि ॥
अभिप्रेहि निर्दह हृत्सु शोकैरन्धेनामित्रास्तमसा सचन्ताम् ॥ १२॥
अवसृष्टा परापतशरव्ये ब्रह्मसंशिते ।
गच्छामित्रान् प्रपद्यस्व मामीषां कञ्चनोच्छिषः ॥ १३॥
प्रेत जयत नर इन्द्रो वः शर्म यच्छन्तु ॥
उग्रा वः सन्तु बाहवोऽनाधृष्याः व यथा असथ ॥ १४॥
असौ या सेना मरुतः परेषाम्मभ्यैति न ओजसा स्पर्धमाना ॥
तां गूहत तमसाऽपव्रतेन यथाऽमी अन्योऽन्यं न जानन् ॥ १५॥
यत्र बाणाः सम्पतन्ति कुमारा विशिखा इव ।
तन्न इन्द्रो बृहस्प्पतिरदितिः शर्म यच्छतु विश्वाहा शर्म यच्छतु ॥ १६॥
मर्माणि ते वर्मणा च्छादयामि सोमस्त्वा राजाऽमृतेनानुवस्ताम् ॥
उरोर्वरीयो वरुणस्ते कृणोतु जयन्तं त्वा देवा अनुमदन्तु ॥ १७॥
इति रुद्रे तृतीयोऽध्यायः ॥ ३
अष्टाध्यायी रुद्रि – चतुर्थ अध्याय १७ श्लोक
ReplyDelete• चतुर्थाध्याय का मैत्रसूक्त नेत्र है ।
चतुर्थाध्याय मे सप्तदश मन्त्र हैँ जो मैत्रसूक्त के रुप मेँ प्रसिद्ध है । इन मन्त्रो मेँ भगवान सूर्य की स्तुति है " ऊँ आकृष्णेन रजसा " मेँ भुवनभास्कर का मनोरम वर्णन है । यह अध्याय सूर्यनारायण का है ।
सूर्यस्तुति
विभ्राड् बृहत्पिबतु सोम्यं मध्वायुर्दधद्यज्ञपतावविहृतम् ॥
वातजूतो योऽभिरक्षतित्मनाप्रजाः पुपोष पुरुधा विराजति ॥ १॥
उदुत्त्यं जातवेदसं देवमुदवहन्ति हन्ति केतवो दृशे विश्वाय सूर्यम् ॥ २॥
येन पावकचक्षसा भुरण्यन्तं जनाँ त्वं वरुण पश्यसि ॥ ३॥
दैव्यावद्ध्वर्यू आगतं रथेन सूर्यत्वचा ॥
मद्धा यज्ञं समञ्जाथे ॥ तं प्रत्क्नथा अयं वेनश्चित्रं देवानाम् ॥ ४॥
तं प्रत्नथा पूर्वथा विश्वथेमथा ज्येष्ठतातिं बर्हिषदं स्वर्विदम् ॥
प्रतीचीनं वृजनं दोहसे धुनिमाशुं जयन्तमनुयासु वर्धसे ॥ ५॥
अयं वेनश्चोदयत्पृश्निगर्भाज्ज्योतिर्जरायुः रजसो विमाने ।
इममपां सङ्गमे सूर्यस्य॒ शिशुं न विप्राः मतिभिः रिहन्ति ॥ ६॥
चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य॒ वरुणस्याग्नेः ॥
आप्राद्यावापृथिवी अन्तरिक्षं सूर्य॑ आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ॥ ७॥
आन इडाभिः विदथे सुशस्ति विश्वानरः सविता देव एतु ॥
अपि यथा युवानो मत्सथा नो विश्वं जगदभिपित्वे मनीषा ॥ ८॥
यदद्य कच्च वृत्रहन्नुदगा अभिसूर्य ॥ सर्वं तदिन्द्र ते वशे ॥ ९॥
तरणिर्विश्वदर्शतो ज्योतिष्कृदसि सूर्य । विश्वमाभासि रोचनम् ॥ १०॥
तत्सूर्यस्य देवत्वं तन्महित्वं मध्या कर्तोः वितत सञ्जभार ॥
यदेदयुक्तहरितः सधस्थादाद्रात्रीवासस्तनुते सिमस्मै ॥ ११॥
तन्मित्रस्य वरुणस्याभिचक्षे सूर्योरूपं कृणुते द्योरुपस्थे ।
अनन्तमन्यद्रुशदस्य॒ पाजः कृष्णमन्यद्धरितः सम्भरन्ति ॥ १२॥
बण्महानसि सूर्य बडादित्य महानसि ॥
महस्ते सतो महिमा पनस्यतेऽद्धा देव महानसि ॥ १३॥
बट्सूर्य्य श्रवसा महानसि सत्रादेव महानसि ।
मन्हा देवानामसुर्यः पुरोहितो विभुज्योतिरदाभ्यम् ॥ १४॥
श्रायन्त इव॒ सूर्य विश्वेदिन्द्रस्य भक्षत ॥
वसूनिजाते जनमाने ओजसा प्रतिभागं न दीधिम ॥ १५॥
अद्य देवा उदिता सूर्यस्य निरंहसः पिपृता निरवद्यात्
तन्नो मित्रो वरुणो मां महन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥ १६॥
आकृष्णेन रजसाऽऽवर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यञ्च ॥
हिरण्ययेन सविता रथेन देव आयाति भुवनानि पश्यन् ॥ १७॥
इति रुद्रे चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४